गुंडाधुर अमर शहीद

गुण्डाधुर को आज भारत के ज्ञात आदिवासी नायकों के बीच जो स्थान मिलना चाहिये था वह अभी तक अप्राप्य है। भारत के आदिवासी आन्दोलनों के इतिहास में वर्ष १९१० जैसे उदाहरण कम ही मिलते हैं जहाँ एक पूरी रियासत के आदिवासी जन अपनी जातिगत विभिन्नताओं से ऊपर उठकर, अपने बोलीगत विभेदों से आगे बढ़ कर जिस एकता के सूत्र में बँध गये थे उसका नाम था गुण्डाधुर। एक ओर सामंतवादी सोच के साथ लाल कालिन्द्रसिंह सत्ता को अपने पक्ष में झुकाना चाहते थे तो दूसरी ओर आदिवासी जन अपने शोषण से त्रस्त एक ऐसा बदलाव चाहते थे जहाँ उनकी मर्जी के शासक हों और उनकी चाही हुई व्यवस्था। गुण्डाधुर नेतानार गाँव का रहने वाला था तथा उत्साही धुरवा जनजाति का युवक था। 

धुरवा आबादी मूलत: सुकमा के कुछ क्षेत्रों, जगदलपुर के निकट, दरभा, छिंदगढ़ आदि क्षेत्रों में प्रसारित है। इसके आलावा ओड़ीशा के लगभग ८८ गाँवों में धुरवा आबाद हैं। धुरवा समाज के सचिव गंगाराम कश्यप के अनुसार बस्तर से लगे उड़ीसा के इलाको में इनकी संख्या १० हजार से अधिक है; वहाँ सरकार ने २००२ से इन्हें आरक्षण और संरक्षण देना सुनिश्चित किया है। एक समय में धुरवा और शौर्य पर्यायवाची शब्द थे। लाला जगदलपुरी जिक्र करते हैं कि चीतापुरिया (जगदलपुर के निकट एक गाँव चीतापुर के निवासियों के लिये) शब्द शासकों के लिये आतंक का समानार्थी समझा जाता था क्योंकि यहाँ के शेर तथा धुरवा दोनों ही ने प्रशासन को हिलाया हुआ था। यह जानकारी बताती है कि धुरवा एक जागरूक टोटम थी। १९१० का महान भूमकाल जिन वीर धुरवाओं की अगुवाई में लड़ा गया वे थे गुण्डाधुर (निवासी नेतानार) तथा डेबरीधुर (निवासी एलंगनार)। 

 नेतानार गाँव के चायकुर पारा का उत्साही धुरवा - बागाधुर ही  गुण्डाधुर था। मुरियाराज की संकल्पना के साथ गुण्डाधुर को वर्ष-१९१० की जनवरी में ताड़ोकी की एक जनसभा में लाल कालिन्द्र सिंह की उद्घोषह णा के द्वारा सर्वमान्य नेता चुना गया (फॉरेन डिपार्टमेंट सीक्रेट, १.०८.१९११)। लालकालिन्द्र ने प्रमुख नायक चुनने के बाद परगना स्तर पर अलग अलग नेता नामजद किये। मंच पर बुला कर उनका भव्य सम्मान किया गया। यह सम्मान प्रेरणा स्त्रोत था जिसके बाद भूमकाल की योजना पर कार्य आरंभ हो गया। इसके साथ ही गुण्डाधुर ने अपने भीतर छिपी अद्भुत संगठन क्षमता का परिचय दिया। गुण्डाधुर ने सम्पूर्ण रियासत की यात्रा की। वह एक गोटुल से दूसरे गोटुल भूमकाल का संदेश प्रसारित करता घूमता रहा। डेबरीधूर कोयतुर युवाओं का संगठन तैयार करने में लग गया था। इतनी बड़ी योजना पर खामोशी से अमल हो रहा था। इसके पीछे गुण्डाधुर का बेहतरीन नेतृत्व कार्य कर रहा था। बाहरी अतिक्रमण  अर्थात अंग्रेज, अंग्रेज अधिकारी, दीवान पण्डा बैजनाथ, पुलिस, डाक कर्मचारी, अध्यापक, मिशनरी से मुक्ति का विद्रोह मुख्य वजह थी। यह नायक जहाँ जाता उसका स्वागत नायक के आगमन सदृश्य होता। वह बिना थके अधिक से अधिक समूहों से जुड़ना चाहता था; अधिक से अधिक गोटुलों में पहुँच कर भूमकाल की मूल भावना प्रसारित करना चाहता था। जीवट था वह; किसी ने उसके तेजस्वी मुख पर लेशमात्र भी थकान नहीं देखी।

गुण्डाधुर का कुशल प्रबंधन देखने योग्य था। राज्य के दक्षिण पूर्वी हिस्से में विद्रोही कई दलों में विभाजित थे और एक साथ कई मोर्चों पर युद्ध हो रहा था। गुण्डाधुर तक हर परिस्थिति की सूचना निरंतर पहुँचायी जा रही थी। जब और जहाँ विद्रोही कमजोर होते वह स्वयं वहाँ उत्साह बढ़ाने के लिये उपस्थित हो जाता। यह युद्ध केवल अंग्रेज अधिकारियों, पुलिस या कि राजा के सैनिकों के बीच ही तो नहीं था। यह दो प्रतिबद्धताओं के बीच का युद्ध हो गया था। एक ओर राजा और उसके समर्थक आदिवासी और दूसरी ओर मुरिया राज के लिये प्रतिबद्ध आदिवासी। हर बीतते दिन के साथ विद्रोही अधिक मजबूत होते जा रहे थे।  इन्द्रावती नदी घाटी के अधिकांश हिस्सों पर दस दिनों में मुरियाराज का परचम बुलन्द हो गया। 

अपनी पुस्तक बस्तर: एक अध्ययन में डॉ. रामकुमार बेहार तथा निर्मला बेहार ने तिथिवार कुछ जानकारियों का संग्रहण किया है जिन्हें मैं उद्धरित कर रहा हूँ-"२५ जनवरी को यह तय हुआ कि विद्रोह करना है और २ फरवरी १९१० को पुसपाल बाजार की लूट से विद्रोह आरंभ हो गया। इस प्रकार केवल आठ दिनों में गुण्डाधुर और उसके साथियों ने इतना बड़ा संघर्ष प्रारंभ कर के एक चमत्कार कर दिखलाया। ७ फरवरी १९१० को बस्तर के तत्कालीन राजा रुद्रप्रताप देव ने सेंट्रल प्राविंस के चीफ कमिश्नर को तार भेज करविद्रोह प्रारंभ होने और तत्काल सहायता भेजने की माँग की। (स्टैण्डन की रिपोर्ट, २९.०३.१९१०)। विद्रोह इतना प्रबल था कि उसे दबाने के लिये सेंट्रल प्रोविंस के २०० सिपाही, मद्रास प्रेसिडेंसी के १५० सिपाही, पंजाब बटालियन के १७० सिपाही भेजे गये (फ़ॉरेन डिपार्टमेंट फाईल, १९११)। १६ फरवरी से ३ मई १९१० तक ये टुकड़ियाँ विद्रोह के दमन में लगी रहीं। ये ७५ दिन बस्तर के विद्रोही आदिवासियों के लिये तो भारी थे ही, जन साधारण को भी दमन का शिकार होना पड़ा। अंग्रेज टुकड़ी विद्रोह दबाने के लिये आयी, उसने सबसे पहला लक्ष्य जगदलपुर को घेरे से मुक्ति दिलाना निर्धारित किया। नेतानार के आसपास के ६५ गाँवों से आये बलवाइयों के शिविर को २६ फरवरी को प्रात: ४:४५ बजे घेरा गया; ५११ आदिवासी पकड़े गये जिन्हें बेंतों की सजा दी गयी (फ़ॉरेन डिपार्टमेंट फाईल, १९११)। नेतानार के पास स्थित अलनार के वन में हुए २६ मार्च के संघर्ष में २१ आदिवासी मारे गये। यहाँ आदिवासियों ने अंग्रेजी टुकड़ी पर इतने तीर चलाये कि सुबह देखा तो चारो ओर तीर ही तीर नज़र आये (फ़ॉरेन डिपार्टमेंट फाईल, १९११)। अलनार की इस लड़ाई के दौरान ही आदिवासियों ने अपने जननायक गुण्डाधुर को युद्ध क्षेत्र से हटा दिया, जिससे वह जीवित रह सके और भविष्य में पुन: विद्रोह का संगठन कर सके। ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं कि १९१२ के आसपास फिर सांकेतिक भाषा में संघर्ष के लिये तैयार करने का प्रयास किया गया (एंवल एडमिनिस्ट्रेशन रिपोर्ट ऑफ बस्तर फ़ोर द ईयर १९१२)। उल्लेखनीय है कि १९१० के विद्रोही नेताओं में गुण्डाधुर ही न तो मारा जा सका और न अंग्रेजों की पकड़ में आया। गुण्डाधुर के बारे में अंग्रेजी फाईल इस टिप्पणी के साथ बंद हो गयी कि "कोई यह बताने में समर्थ नहीं है कि गुण्डाधुर कौन था? बस्तर का यह जन नायक अपनी विलक्षण प्रतिभा के कारण इतिहास में सदैव महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करता रहेगा"। 

पूरे आन्दोलन को समग्रता से देखा जाये तो नेतानार का एक साधारण धुरवा, अद्धभुत संगठनकर्ता सिद्ध हुआ था। दंतेवाड़ा से ले कर कोण्डागाँव तक लड़ी गयी हर बड़ी लड़ाई में गुण्डाधुर स्वयं उपस्थित था। कितनी ही लड़ाइयों के बाद विजय के जश्न पिछले पंद्रह दिनों में मनाये गये। अपनी जय जयकार के बीच मुरियाराज की स्थापना का पल निकट आता महसूस हो रहा था। एक ओर विद्रोही राजधानी को घेर कर बैठे थे और दूसरी ओर गेयर, दि ब्रेट और उसने साथ पहुँची अंग्रेज सैन्य टुकड़ियों के कारण तनाव की स्थिति निर्मित हो गयी थी। गेयर को यह अनुमान था कि जब तक अतिरिक्त मदद उसे प्राप्त नहीं हो जाती है किसी भी तरह सीधे संघर्ष को रोक कर रखने में ही लाभ है। वही चिर परिचित चालाकी से काम लिया गया जिसके लिये कायर अंग्रेज जाने जाते रहे हैं। गेयर को ज्ञात था कि माटी ही आदिवासियों का जीवन है और देवता है। अपने प्रशासकीय कार्यकाल के दौरान अनेक मुकदमों में उसने पाया था कि आदिम 'मिट्टी की कसम' खा कर झूठ नहीं बोलते। यहाँ तक कि हत्या जैसे मुकदमों में भी मिट्टी की कसम खिलाये जाते ही आदिमों ने अपराध यह जानते हुए भी कबूल कर लिया था कि उन्हें फाँसी की सजा हो जायेगी। इसी सरलता और निष्कलंकता को गेयर ने अपने आखिरी हथियार की तरह इस्तेमाल किया। उसने मिट्टी हाथ में उठा कर आदिवासियों की सभी समस्याओं को हल करने की कसम खाई। उसने विश्वास दिलाया कि आदिवासी अपनी लड़ाई जीत गये हैं। अब आगे का शासन उनके अनुसार ही चलाया जायेगा। आदिवासी इस चाल में आ गये। भला माटी की कोई झूठी कसम खा सकता है? माटी तो सभी की देवी है, वह बस्तरिये हों या कि अंग्रेज। समूह में से कुछ विद्रोहियों को सहमति के आधार पर समझौते के लिये नामित किया गया। इनका कार्य गुण्डाधुर और सरकार के बीच संवाद स्थापित करना था। गेयर सभा से उठा तो उसके चेहरे पर विजयी मुस्कान थी। वह भावनात्मक बेवकूफ तो हर्गिज नहीं था; इसके अलावा इतना व्यवहारिक भी था कि कसम-वसम जैसी बातों को वाहयात समझे। मिट्टी की सौगंध खा कर गेयर ने मनोवैज्ञानिक अस्त्र साधा था। उसने आदिम समूहों को भी मिट्टी की कसम उठाने के किये बाध्य कर दिया कि जब तक बातचीत की प्रक्रिया चलेगी, विद्रोही आक्रमण नहीं करेंगे। इसके बाद वार्ता प्रारंभ हुई। हर बार प्रस्तावों को किसी न किसी टाल मटोल के साथ गेयर लौटा देता। विद्रोहियों को लगता कि उनकी बात सुनी जा रही है और गेयर के लिये इंतजार का एक एक दिन कटता जा रहा था। यह संदेश अंग्रेजों तक पहुँच चुका था कि २४ फरवरी की सुबह-सुबह मद्रास और पंजाब बटालियन जगदलपुर पहुँच जायेंगी। देर से मिली सूचना के बाद भी जबलपुर, विजगापट्टनम, जैपोर और नागपुर से भी २५ फरवरी तक सशस्त्र सेनाओं के पहुँचने की उम्मीद बन गयी थी।

जैसे ही अंग्रेज शक्ति सम्पन्न हुए तुरंत ही राजधानी से विद्रोहियों को खदेडने की कार्यवाही प्रारंभ कर दी गयी। विद्रोही हतप्रभ थे; मिट्टी की कसम खा कर भी धोखा? क्या गेयर के अपने देश में मिट्टी का कोई मान नहीं होता? झूठ और साजिश से मिली जीत से भी अंग्रेजों को कोई ग्लानि नहीं होगी? फौज की अपराजेय ताकत और आग उगलने वाले हथियारों वाली सेना को नंग-धडंग, कुल्हाड़-फरसा धारियों से युद्ध जीतने में षडयंत्र करना पड़ता है? इसके लिये वे शार्मिन्दा भी नहीं होते? गोलियाँ चलने लगीं। यह विद्रोहियों के लिये अनअपेक्षित था, वे तैयार भी नहीं थे। गुण्डाधुर ने पीछे हटने का निर्णय लिया। सरकारी सेना आगे बढ़ती जा रही थी और विद्रोही जगदलपुर की भूमि से खदेड़े जा रहे थे। कई विद्रोही गिरफ्तार कर लिये गये और कई बस्तर की माटी के लिये शहीद हो गये। 

यह बहुत भी भयानक रात थी। पराजित, थके हुए तथा मनोबलहीन विद्रोही जगदलपुर से आठ किलोमीटर दूर स्थित अलनार गाँव में एकत्रित हुए। किसी तरह गेयर तक खबर पहुँच गयी कि विद्रोही अलनार में एकत्रित हो गये हैं। गुण्डाधुर के नेतृत्व में सुबह होते ही महल पर हमला किया जायेगा। यद्यपि यह अत्यंत साहसिक हमला ही सिद्ध होता चूँकि मशीनगनों से सज्जित अंगरेजी सेना महल की सुरक्षा में थी। तथापि जिनके मस्तक पर कफन बँधे हों वे दुस्साहसी हो ही जाते हैं। गेयर ने आधीरात को सोते हुए जनसमूह पर हमला करना श्रेयस्कर समझा। बस्तर को हमेशा अपने वीर माटी पुरुषों पर गर्व रहेगा जो इस आपातकाल में भी सहमें नहीं। लड़ कर जान देंगे की भावना के साथ आधी रात को हुए कायराना-अंग्रेज आक्रमण का उत्तर दिया गया। भोर की पहली किरण के साथ ही युद्ध समाप्त हो सका। अलनार गाँव से विद्रोही पलायन कर गये। गुण्डाधुर एक बार फिर गेयर की पकड़ में नहीं आया। गेयर को गुण्डाधुर के प्रमुख विद्रोही साथी डेबरीधूर को पकड़ने में भी नाकामयाबी मिली। गुप्त सूचना के आधार पर कुछ घुड़सवारों को नेतानार भेजा गया। एक सिपाही डेबरीधुर की झोपड़ी के भीतर घुसा किंतु आहट से सचेत हो चुके इस विद्रोही ने बिजली की फुर्ती के साथ हमला कर उस की हत्या कर दी। इसके बाद डेबरीधुर अँधेरे का फायदा उठा कर जंगल में गायब हो गया और सिपाही असहाय से देखते रह गये थे। गेयर ने गुण्डाधुर को पकड़ने के लिये दस हजार और डेबरीधुर पर पाँच हजार रुपयों के इनाम की घोषणा की थी। 

शीघ्र ही गुण्डाधुर ने विद्रोहियों का संगठन पुनर्जीवित कर लिया। नेतानार में ही गोपनीय तरीके से तैयार किया गया सात सौ क्रांतिकारियों का समूह पुन: उस ब्रिटिश सत्ता से टकराने के लिये तत्पर था, जिनके साम्राज्य में सूर्य अस्त नहीं होता है। २५ मार्च २०१०; उलनार भाठा के निकट सरकारी सेना का पड़ाव था। गुण्डाधुर को जानकारी दी गयी कि गेयर भी उलनार के इस कैम्प में ठहरा हुआ है। डेबरीधुर, सोनू माझी, मुस्मी हड़मा, मुण्डी कलार, धानू धाकड, बुधरू, बुटलू जैसे राज्य के कोने कोने से आये गुण्डाधुर के विश्वस्त क्रांतिकारी साथियों ने अचानक हमला करने की योजना बनायी। विद्रोहियों ने भीषण आक्रमण किया। गेयर के होश उड़ गये। वह चारों ओर से घिरा हुआ था। बाणों की बैछारों से घायल होते उसके सैनिकों में भगदड़ मच गयी। सैनिकों के पास हमले का प्रत्युत्तर देने का समय नहीं था। गेयर जानता था कि यदि वह पकड़ लिया गया तो विद्रोही जीवित नहीं छोडेंगे। बुरी तरह अपमानित महसूस करता हुआ वह युद्धभूमि से पलायन कर गया। एक घंटे भी सरकारी सेना विद्रोहियों के सामने नहीं टिक सकी और भाग खड़ी हुई। उलनार भाठा पर अब गुण्डाधुर के विजयी वीर अपने हथियारों को लहराते उत्सव मना रहे थे। नगाडों ने आसमान गुंजायित कर दिया। मुरियाराज की कल्पना ने फिर पंख पहन लिये। 

इस विजयोन्माद में सबसे प्रसन्न सोनू माझी ही लग रहा था। कोई संदेह भी नहीं कर सकता था कि उनका यह साथी अंग्रेजों से मिल गया है। महीने भर बाद मिली इस बड़ी जीत से सभी विद्रोही उत्साहित थे। सोनू माझी ने स्वयं आगे बढ़ बढ़ कर शराब परोसी। सभी ने छक कर शराब और लाँदा पिया। रात गहराती जा रही थी। निद्रा और नशा विद्रोही दल पर हावी होने लगा। सोनू माझी दबे पाँव बाहर निकला। वह जानता था कि इस समय गेयर कहाँ हो सकता है। उलनार से लगभग तीन किलोमीटर दूर एक खुली सी जगह पर गेयर सैन्यदल को एकत्रित करने में लगा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह दि ब्रेट से क्या कहेगा? उसे इस अपमानजनक पराजय का कोई स्पष्टीकरण गढ़ते नहीं बन रहा था। सोनू माझी को सामने देख कर तिनके को सहारा मिलता प्रतीत हुआ। सोनू माझी के यब बताते ही कि विद्रोही इस समय अचेत अवस्था में हैं तथा यही उनपर आक्रमण करने का सही समय है, गेयर को अपनी कायरता दिखाने का भरपूर मौका मिल गया। पौ फटने में अभी देर थी। गेयर ने संगठित आक्रमण किया। सोनू माझी आगे आगे चल कर मार्गदर्शन कर रहा था। गोलियों की आवाज ने अचेत गुण्डाधुर में चेतना का संचार किया। वह सँभला और आवाज़ें दे-दे कर विद्रोहीदल को सचेत करने लगा। नशा हर एक पर हावी था। कुछ अर्ध-अचेत विद्रोहियों में हलचल हुई भी किंतु उनमें धनुष बाण को उठाने की ताकत शेष नहीं थी। हर बीतते पल के साथ गेयर के सैनिक कदमताल करते हुए नज़दीक आ रहे थे। गुण्डाधुर ने कमर में अपनी तलवार खोंसी और भारी मन तथा कदमों से घने जंगलों की ओर बढ़ गया। वह जानता था कि उसके पकड़े जाने से यह महान भूमकाल समाप्त हो जायेगा। अभी उम्मीद तो शेष है। 

कोई विरोध या प्रत्याक्रमण न होने के बाद भी क्रोध से भरे गेयर ने देखते ही गोली मार देने के आदेश दिये थे। सुबह इक्क्सीस लाशें माटी में शहीद होने के गर्व के साथ पड़ी हुई थी। डेबरीधूर और अनेक प्रमुख क्रांतिकारी पकड़ लिये गये। नगाड़ा पीट पीट कर जगदलपुर शहर और आस पास के गाँवों में डेबरीधूर के पकड़े जाने की मुनादी की गयी। उसपर कोई मुकदमा नहीं चलाया गया और कोई सुनवायी भी नहीं। नगर के बीचों-बीच इमली के पेड़ में डेबरीधूर और माड़िया माझी को लटका कर फाँसी दी गयी। नम आँखों से बस्तर की माटी ने अपने वीर सपूतों की शहादत को नमन किया और फिर आत्मसात कर लिया।

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