गोदना

गोदना......
यानी शरीर पर चलती सूईयां... चेहरे पर झलकता दर्द... लेकिन साथ ही आंखों में संतोष और खुशी की मुस्कुराहट...। भले ही पहली नजर में इन द्रश्य को देखकर आपको कुछ समझ में न आए,लेकिन यह गोदना है,जो गोदा जा रहा है। गोदना यानि आदिवासियों का श्रृंगार...।
आदिवासी इलाकों में गोदना किसी परम्परा की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। गोदने के आधार पर बैगा आदिवासी की उम्र व समाज की पहचान की जा सकती है। आदिवासियों का गोदना शहरी फैशन की टैटू की तरह अस्थाई नहीं,बल्कि‘जिन्दगी के साथ भी जिन्दगी के बाद भी’के स्लोगन की तरह है।
गोदना गोदने वाली महिला को बदनिन कहा जाता है। कुछ अनाज के बदले ये महिला बैगाओं के शरीर पर गोदना बना देती है। गोदना एक विशेष प्रकार के स्याही से गोदे जाते हैं। इस स्याही को बनाने के लिए पहले काले तिलों को अच्छी तरह भुना जाता है और फिर उसे लौंदा बनाकर जलाया जाता है। जलने के बाद प्राप्त स्याही जमा कर ली जाती है और इस स्याही से बदनिन एक विशेष प्रकार की सूई से जिस्मों पर मनचाही आकृति,नाम और चिन्ह गोदती है। इसमें भिलवां रस,मालवन वृक्ष या रमतिला के काजल को तेल के घोल में फैट कर उस लेप का भी इस्तेमाल किया जाता है।
करीब आठ साल की बैगा लड़कियों के शरीर में गुदना करना प्रारम्भ होता है और शादी के बाद भी ये गुदवाती रहती हैं। बैगा स्त्री गुदना गुदवाने को अपना धर्म मानती हैं,साथ ही ऐसी स्त्रियों का समाज में मान बढ़ जाता है। गोदना प्रायः माथे (कपाल),हाथ,पीठ,जांघ और छाती पर गुदवाया जाता है। गोदना बरसात के महीने में नहीं गुदवाया जाता है,बाकी किसी भी मौसम में गोदना गुदवा सकते हैं।
कुछ विद्वानों की राय में गोदना के जरिए शिराओं में प्रवाहित की जाने वाली दवाएं आजीवन भर शरीर को गंभीर बीमारियों से दूर रखती है। इस तरह से गोदना जापानी परंपरा के एक्यूपंचर की तरह है,जो हमारी परंपरा में फैशन और सेहत का अदभूत संगम है। इसका उदाहरण हमलोग अपने बचपन में देख चुके हैं,जब बच्चों को संक्रमित बीमारी से बचाने के लिए पाच लगाया जाता है,जिसका निशान जीवंत पर्यन्त रहता है।

मप्र की लोक-संस्कृति में गोदना कला को अब अन्य संदर्भों में विभिन्न महत्वों के हिसाब से देखा जा रहा है। राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय स्तर पर थ्री डी टैटू के ताजा दौर में मप्र में इस पारंपरिक कला में एक्यूपंचर चिकित्सा पद्धति की संभावनाएं तलाशने की ठानी गई है। इसको लेकर शोध प्रारंभ किए गए हैं। इस विषय को राज्य सरकार के आदिम-जाति अनुसंधान एवं विकास विभाग (टीआरआई) ने अपनी सलाना शोध परियोजना में शामिल कर लिया है।
देखा जाए तो गोदना की शुरूआत का कोई निश्चित प्रमाण नहीं है। माना जाता है कि मानव सभ्यता के आगाज के साथ ही इसका आगाज हुआ है। बैगा जनजातियों में ऐसी धारणा है कि गुदना गुदवाने से गठिया वात या चर्म रोग नहीं होते।
गोंड जनजाति के लोग यह मानते हैं कि जो बच्चा चल नही सकता,चलने में कमजोर है,उस के जांघ के आसपास गोदने से वह न सिर्फ चलने लगेगा,बल्कि दौड़ना भी शुरू कर देगा।
भील यह मानते हैं कि गोदने के कारण शरीर बीमारियो से बच जाता है,मनुष्य स्वस्थ रहता है।
चीन में जैसे सुई शरीर में चुभाकर एक्यूपंचर से कई बीमारियां दूर करते हैं,उसी तरह गोदना भी शरीर को स्वस्थ रखने में मदद करती है। सुई अगर ठीक-ठाक नर्भस को छू जाए तो शरीर का स्वस्थ होना संभव है।मध्यप्रदेश में बैगा जनजातियों का मानना है कि गोदना या आधुनिक समाज का फैशन टैटू शरीर नहीं आत्मा का श्रृंगार है।
छत्तीसगढ़ में यह माना जाता है कि गोदना गुदवाए बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। भीलों की मान्यता है कि शरीर को इससे कई बीमारियों से मुक्ति मिल जाती है। वहीं गोंड जनजाति की मान्यता है कि इसे कोई चुरा नहीं सकता। शारीरिक रूप से कमजोर बालकों के शरीर पर गोदना गोदने से वे चलने और दौड़ने लगता है। गोदना को बैगा आदिवासी सबसे अधिक पसंद करते हैं। इनकी धार्मिक,सामाजिक मान्यता है कि यह उनकी पहचान कायम रखता है। दुनिया में जो गोदना नहीं गुदवाते,उन्हें भगवान के सामने सब्बल से गुदवाना पड़ेगा। जिस स्त्री के शरीर पर जितने ज्यादा गोदना होगा,उसे ससुराल में उतना सम्मान मिलता है। जिसके शरीर पर गोदना नहीं होता,उसका मायका गरीब माना जाता है।
यूं तो राजस्थान में गोदना का चलन सभी जनजातियों में है,लेकिन भाट,नट,भील,मारवाड़ बंजारा,रैबारी,बाउरी कालबेलिया आदि में इसका अधिक प्रचलन है।गोदना हर देश और परंपरा में मिल जाता है।
वर्षों पहले विश्व में इस कला के असली प्रमाण ईसा से1300साल पहले मिस्र में, 300वर्ष ईसा पूर्व साइबेरिया के कब्रिस्तान में मिले हैं।
ऐडमिरैस्टी द्वीप में रहने वालों,फिजी निवासियों,भारत के गोंड और टोडो,ल्यू क्यू द्वीप के बाशिन्दों और अन्य कई जातियों में रंगीन गुदने गुदवाने की प्रथा केवल स्त्रियों तक सीमित है।
मिस्र में नील नदी की उध्र्य उपत्यका में बसने वाले लटुका लोग केवल स्त्रियों के शरीरों पर क्षतचिन्ह बनवाते हैं। अफ्रीका के अनेक आदिम कबीले क्षतचिन्हों को पसंद करते हैं और मध्य कांगों के बगल शरीर अलंकरण के लिए पूरे शरीर पर क्षतांक बनवाते हैं।सलमान द्वीप में लड़कियों का विवाह तब तक नहीं हो पाता,जब तक उनके चेहरों और वक्षस्थलों पर गुदने न गुदवा दिए जाएं।
आस्ट्रेलिया के आदिवासियों में विवाह से पहले लड़कियों की पीठ पर क्षतचिन्हों का होना अनिवार्य है। फारमोसा निवासियों में विवाह से पहले लड़कियों के चेहरों पर गुदने गुदवाए जाते हैं और न्यूगिनी के पाहुन विवाह से पहले लड़कियों के पूरे शरीर पर (मुंह को छोड़कर) गुदने गुदवाते हैं। न्यूजीलैंड के माओरिस लोगों और जापानियों ने रंगीन गुदनों का विकास उच्च कलात्मक रूप में किया था।

गुदना भारत ही नही बल्कि विश्व के आदिवासी,जनजातियों में एक पहचान है़.

जयसेवा जय गोंडवाना.

Admin-#SANDESHBHALAVI.

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