दंतेश्वरी, काछनयाया व दलपतदेव
दंतेश्वरी ,काछनयाया ,दलपतदेव एवं जगदलपुर
बस्तर वास्तव में अबुझ है इसे बहुत वेताओं ने बुझने की कोशिश की कुछ ने तो यहाँ की कोयतुर भाषा बोलियों की कठिनता से बुझ ही नहीं पाये । और खिन्नता को "अबुझमाड़" का पर्याय दे कर पल्ला झाड़ लिए ... किसी भी भूभाग या समाज की वो भी कोयतुर की इतिहास जानना है तो पहली अनिवार्य योग्यता भाषा बोली का ज्ञान, रुढ़ी और प्रथा की मातृभाषा में जानकारी एवं संस्कृति को आत्मसात् करने की आवश्यकता होती है। इसलिए कई वेताओं ने बस्तर की संस्कृति को इस कदर वस्त्र विहीन किये कि संबंधित समुदाय आज भी उस समुदाय से संबंधित हूं यह कल्पना मात्र के लिए भी कुंठित और तिरस्कृत समझता है। इस प्रकार बस्तर को किस कदर बुझे हैं समझ सकते हैं ।
चलिए आज बुझने की कोशिश करते हैं दंतेश्वरी एवं काछनगादी याया ...
बस्तर में दंतेश्वरी की उपस्थित की जानकारी काकतीय वंश के प्रथम राजा अन्नमदेव (१३२४-१३६७) के साथ ही प्राप्त होती है। जनसामान्य व वेताओं ने बताया है कि दंतेश्वरी काकतीय वंश की कुलदेवी है जो वारंगल से यहाँ राजा के द्वारा ही लायी गयी । इसी संदर्भ में उल्लेख चाहूंगा कि अन्नमदेव को नाग वंशीय राजाओं से छोटे छोटे गढ़ के रुप में स्थापित परगना को विजय करने में कोई संघर्ष करना ही नहीं पड़ा । जनश्रुति है कि दंतेश्वरी देवी ने आशीर्वाद दी कि आप आगे आगे चिलिए मैं आपके साथ जहाँ तक हूं (पैरी-पायल की आवाज) वहाँ तक राजपाट है। पैरी नदी में दंतेश्वरी देवी की पैरी की आवाज रेत में पैर धंसने के कारण बंद हो गई वही राजा ने पलटकर पीछे देख लिया । बस्तर की सीमा वहाँ तक मानी जाती है। उक्त जनश्रुति का उल्लेख इसलिए जरूरी है क्योंकि बस्तर में राजशाही पूरी वंश दंतेश्वरी देवी में ही केन्द्रीत रही है। अन्नमदेव का पहला राजतिलक पेनडोंगुर में हुआ वहीं पर दंतेश्वरी की गुड़ी बनायी गयी । काकतीय वंश के प्रथम वंश से अब १३वें राजा दलपत देव (१७३१-१७७४) पर आते हैं १३वें काकतीय राजा दलपत देव की राजधानी वर्तमान बस्तर ग्राम में थी । बस्तर से राजधानी जगदलपुर सन् १७७० में स्थापित किया गया। राजा दलपत देव शिकार करने में दिलचस्पी लेते थे । शिकार करने के लिए राजा कुतरी डोंगरी हमेशा जाया करते थे। एक दिन राजा शिकार करने निकले थे जैसे ही उनका घोड़ा कुम्हड़ाकोट के जंगल से गुजर रहा था कि घोड़ा एवं शिकारी कुत्ता आगे बढ़ ही नहीं पा रहे थे । उनके सामने कुम्हड़ा का फूल दिखाई दिया ।बहुत प्रयास उपरान्त भी राजा आगे बढ़ नहीं पाये । यह आबोहवा किसी और की नहीं काछन याया की थी जो जगदलपुड़ा की माटी याया है जिसे जिम्मीदारीन या चिकला दायी भी कहते हैं । जगदलपुड़ा के माटी पुजार व सिरहा जगतू माहरा ही थे। उन दिनों जगदलपुड़ा में १० कुड़िया माहरा परिवार २-३ मुरिया परिवार वर्तमान पनारा पारा के आसपास स्थित थी। तब की जगदलपुर एक सिर्फ नार्र की पारा के समान थी।
राजा दलपतदेव उस दिन वापस बस्तर लौट गये । और चिंतित हो उठे कि इस भूभाग का मैं राजा हूं और मेरा घोड़ा व कुत्ता आज कौन सी शक्ति के कारण आगे बढ़ नहीं पाये ??? दूसरे दिन सेनापति को जगदलपुड़ा भेजकर वहाँ निवासरत प्रजा की जानकारी व मुखिया गायता की जानकारी हासिल करने का फरमान सुनाया। २ सेनापति जगतू माहरा के नार्र पहुंच गये ।उन्होने राजा का संदेश जगतू को बताया फिर शाम को जगतू ने सभी नार्र बुमकाल को सूचित करके पुरा वाक्या बताया सभी आपस में चर्चा कर सभी नार्र वासी कुकड़ाबासी राजधानी बस्तर के लिए निकल गये । वहाँ राजदरबार लगी थी वहाँ पर राजा ने घटित वाक्या बतायी तब जगतू माहरा से नार्र का माटी पुजार होने के कारण जवाब तलब किया गया । तब जगतू माहरा ने बताया कि वह कुम्हड़ापुंगार की आबोहवा कोई और नहीं हमारे नार्र की चिकला याया जिम्मीदारीन काछनयाया है। राजा को यह जानकर बहुत अचरज महसूस हुई और इस पर दीवान से मशविरा करके जगतू माहरा से उस पेन का आश्रय पाने की इच्छा व्यक्त की। तब जगतू माहरा ने बताया कि यह माहरा कुंदा की पेन है तथा जगदलपुड़ा की जिम्मीदारीन है। यह पेन अर्जि बिनती कर आह्वान करने से कुंवारी कन्या पर ही सवार होती है। तब राजा दलपत देव ने रानी कुवारीन बघेलीन के साथ काछनयाया की सेवा अर्जि कर देखने की इच्छा व्यक्त की । जगतू माहरा ने राजा रानी को ९ दिनों बाद आने का नेवता दिया । ९ दिन बाद राजा रानी बघेलीन के साथ जगदलपुड़ा पहुंचे । पुजार जगतू माहरा ने रुढ़ी प्रथा के अनुसार अर्जि कर आह्वान किया तब एक कुंवारी कन्या पर काछन याया सवार होकर दर्शन दी तब जगतू माहरा याया से बोले -याया एक राजा आया है आपकी अनुमति चाह रहा है कि आपकी विशेष आबोहवा शक्ति माटी में रहना चाहता है...बताइए क्या सही है????
तब काछन याया ने जवाब दिया कि - मैं यहाँ की जिम्मेदारी लेने और देने वाली माटी याया हूं । बताइए यहाँ क्यों रहना चाहते हैं ??
राजा- आपकी कोरा में मुझे विशेष शक्ति का अहसास हुआ है। इसलिए मैं राजपाट जगदलपुर में स्थापित करना चाहता हूं ।
काछनयाया- ठीक है अनुमति है लेकिन एक शर्त है नार्र में जो भी सामुदायिक तिहार कार्य होंगे अनुमति प्राप्त करना होगा । मेरे बिना अनुमति के करेंगे तो आपका कार्य सफल नहीं होगा और राजपाट का नाश होगा ।
राजा दलपत देव ने रानी के साथ काछन याया का आशीर्वाद प्राप्त कर सन् १७७० में जगतू माहरा के द्वारा दी गई जमीन पर राजमहल स्थापित किया । जगतू माहरा व दलपत देव का संबंध किसी दोस्त से कम नहीं था जगतू माहरा राज दरबार में हमेशा उपस्थित रहते थे व परजा के हितों के संबंध में चर्चा करते थे । राजा दलपतदेव ने जगतू माहरा की माटी शक्ति अर्थात काछनयाया की शक्ति को भांप चुके थे इसलिए जगतू माहरा को बराबर तवज्जो दी। इसी का नतीजा है कि इस शहर का नामकरण में प्रथम स्थान जगतू से जग, दलपत से दल व पानीपुर से पुर शब्दों का संयोजन कर जग+दल+पुर किया । यहाँ पानीपुर का उल्लेख इंद्रावती के लिए संदर्भ में है। वर्तमान जगदलपुर के निर्माता निर्देशक जगतू माहरा व राजा दलपतदेव को ही जाता है। राजा दलपत देव ने ही जगदलपुर का नामकरण व दलपत सागर की स्थापना करवाई ।राजधानी स्थापित करने के तीन वर्ष के भीतर ही दलपतदेव की मृत्यु हो गयी ।
उपरोक्त संदर्भों से यह ज्ञात होता है कि बस्तर के प्रत्येक नार्र में चिकला याया का स्थापना है और गाँव का नियंत्रण व प्रबंध आज भी बस्तर में जिम्मीदारीन या चिकला माता के निर्देश पर माटी गांयता पुजार करते हैं । किसी भी कोया नार्र में काकतीय वंश पूर्व से ही माटी सेवा की जाती है। इसका संदर्भ सोमदेव राजवंश (११००-१२००) के लगभग से भी मिलता है। काकतीय द्वारा बस्तर के पेनों की सेवा स्थानीय राज करने हेतु किया गया इसका उदाहरण अन्नमदेव की बड़ेडोंगर में पहली राजतिलक पखनागद्दी से प्रमाण होता है इस राजतिलक में भी बड़ेडोंगर के माटी गायता कोर्राम टोटम धारी द्वारा माटी याया अर्थात् चिकला/ जिम्मीदारीन याया से अनुमति उपरान्त ही हुआ था। जो क्रमबद्ध बनी रही । बड़ेडोंगर सिर्फ राजतिलक की गद्दी नहीं है यह पेनों की भी गद्दी नार्र हैं ।
एक विश्लेषण यह भी कि कोयतोरक पेनों के नाम स्थानीय व एक विशेष रुपक के साथ ही मिलते हैं जैसे करनाकोटिन, पेन्ड्रावन्डीन, हिंगलाजिन, माड़िन, काटाखयी आदि .....जबकि दंतेश्वरी नाम उपरोक्त स्थानीय पेनक यायाओं के नाम से अलग थलग है। जनजाति समुदाय में किसी विवाहित महिला का नाम नहीं लिया जाता है उसके मायके गांव का नाम के साथ अयीन या रीन प्रत्यय प्रयोग हुए हैं । जैसे मुरनार मायके वाली महिला को मुरनारीन, बोकड़ाबेड़ा मायके वाली को बोकड़ाबेड़ीन, कोदोभाट की है तो कोदोभाटीन ....यह बहुत ही महत्वपूर्ण रुढ़ी है। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि दंतेश्वरी देवी मूलतः वारंगल से राजा द्वारा लायी गयी देवी है जबकि स्थानीय जनजातियों की पेनों के नाम माटी नार्रक व प्रचलित रुढ़ी के अनुसार ही रही है। व वर्तमान में भी जारी है।
माखन लाल सोरी
लंकाकोट कोयामुरी दीप
सर जी जानकारी बहुत अच्छा लगा ....इसी तरह सूचनाओं की श्रृंखला निरन्तर प्रवाहित होता रहेगा इसी कामना के साथ ....सेवा जोहार.....
जवाब देंहटाएंबहूत ही अच्छी जानकारी सर हम आपसे यही उमीद रखते हे जय जोहार
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी जानकारी है सर हम आपसे और अच्छी अच्छी जानकारी की उम्मीद रखते है जय सेवा जोहार
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी जानकारी है सर हम आपसे और अच्छी अच्छी जानकारी की उम्मीद रखते है जय सेवा जोहार
जवाब देंहटाएंदेवी दंतेश्वरी के संबंध में जानकारी भ्रामक है। दंतेश्वरी बस्तर में पूर्व से स्थापित माणिक्य देवी का ही परिवर्तित नाम है।
जवाब देंहटाएंआपने जितने भी देवियों के नाम लिखे है वे सभी पूर्व से स्थापित है। समय के साथ वे देवियां ग्रामों के नाम पर जानी गई।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया जानकारी है,
जवाब देंहटाएंदादा मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इस तरह के निरंतर शोधकर हमारे पुरखों की जानकारी देते रहेंगें,,,
चिखला आया न - सेवा सेवा
आप से निवेदन है सर जी की इसी प्रकार की जानकरी हमें देते रहे
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन दादी
जवाब देंहटाएं