बुमकाल विद्रोह के सामयिक कारण

बुमकाल विद्रोह(१९१०) मुरिया राज व स्वायत्तता अतिक्रमण पर शस्त्र प्रहार

बुमकाल विद्रोह १० फरवरी की १०६वीं बरसी पर सभी शहीदों का हासपेन जोहार करने हेतु समर्पित आलेख

तथाकथित सभ्य परदेशी से आदिवासी जब जब मिला,  तब तब हर बार अनिवार्य रुप से वह शोषित हुआ। सामन्त, राजा, जमींदार, जागीरदार, व्यवसायी, अधिकारी, व्यापारी, साहूकार, पार्टियों के दलाल समय-समय पर आदिवासियों को घुन की तरह चट करते रहे हैं। आदिवासियों ने आरोपित परिवर्तन का चिरपरिचित प्रतिरोध किया है। १९१० के विप्लव का भी लक्ष्य था बस्तर में मुरिया राज की स्थापना और शोषकों का नेस्तनाबूद करना। बस्तर के आदिवासियों की लक्ष्य थी कि ब्रिटिश व शोषक मण्डली को बस्तर माटी से बाहर "बोहरानी" करना था। बोहरानी या रवानगी करना एक महत्वपूर्ण कोयतुर रूढ़ी दस्तूर है जिसमें समुदाय के लिए हानिकारक पेन, वेन (मानव) ,शक्ति / जीव/बीमारी के कारक जीव को गांव / राज्य की सरहद से बाहर फेंक कर सीमा को बंधित किया जाता है। बुमकाल विद्रोह तत्कालीन बस्तर के मूल बस्तरिया समाज के समर्थन के साथ गुंडाधुर धुरवा नायक के नेतृत्व में लड़ी गयी । यह लड़ाई माटी याया की रक्षा करके स्वायत्तता की लड़ाई थी।

बस्तर में बुमकाल विद्रोह के प्रमुख कारण

१. बस्तर के तत्कालीन राजा पर ब्रिटिश सरकार का पुर्ण हस्तक्षेप के कारण असंतोष । १९०८ ई में चालुक्य वंशीय राजा रुद्रप्रताप देव थे।
२. तत्कालीन दीवान बैजनाथ पण्डा (१९०८) की शोषण नितिन
३. ब्रिटिश सरकार के अधीनस्थ बेलगाम कर्मचारियों का जनता का शोषण।
४. पूर्व दीवान लाला कालेन्द्रसिंह की ब्रिटिश सरकार द्वारा बदले की भावना क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने इन्हें दीवानी से विमुक्त किया था।
५. अधीनस्थ कर्मचारियों द्वारा आदिवासियों की परम्परागत कृषि व वनोपज पर दखलंदाजी बढ़ गयी थी।
६. ब्रिटिश सरकार द्वारा आदिवासियों के नैसर्गिक वनों को संरक्षित वन
घोषित करके आदिवासियों के अहस्तान्तरणीय अधिकारों को हड़प लिया गया। पण्डा दीवान ने 'जंगल कर' लगा दी। वन कर्मचारियों का आतंक सिर चढ़ कर बोलने लगा ।
७. ठेकेदारों की ठेकेदारी से आदिवासियों की जमीनों को हड़पना व पूरे गांव को ही लीज पर देने के कारण आक्रोश।
८. परम्परागत आसवित महुआ जल को प्रतिबन्धित कर ठेकेदारों के द्वारा भट्टी शराब को लागू करने के कारण प्रतिरोध ।
९. आदिवासियों को लालची "ब्यूरोक्रेसी " को खिलाने के लिए बार-बार उधार लेना होता था। साहूकार पठान,  छत्तीसगढ़ी व्यापारी, तेलंगा साहूकारों से उधार लेने को विवश किया ।यह तो औपनिवेशिक ' मार्केट इकोनोमी ' की उच्श्रृखलता थी, जिससे आदिवासियों की इकोनोमी जबरन जोड़ी गयी । इसी के कारण व्यापारियों तथा साहूकारों की गतिविधियां बहुत बढ़ गयी थी।
१०. आदिम समुदाय की पारम्परिक समाज संस्कृति पर तिरस्कार घृणित भेदभाव का व्यवहार परदेशी समूह के द्वारा के कारण भी समाज में जन आक्रोश बढ़ा ।
११. तत्कालीन शिक्षा नीति के आड़ में प्रवासी मास्टर तहसीलदार व इंस्पेक्टर के लिए अभिभावकों से पैसा वसूल करते थे। प्रवासी शिक्षक शोषकों के एजेन्ट की भांति कार्य करते थे। शिक्षकों की छात्रों के प्रति दुर्व्यवहार व अभिभावकों के प्रति अभद्र व्यवहार ने बच्चों को पाठशाला  के बजाय खेतों की ओर विवश कर दिया ।( फारेन पोलिटिकल इंटरनल, नेशनल आर्काइव आफ इंडिया जनवरी १८८४, कार्यवाही क्रमांक १२२, पैरा ३३, तदेव अगस्त १९११, क्रमांक ३७, पैरा ३४) पाठशालाओं के चपरासी प्रायः आदिवासी अभिभावकों को धमकाते थे । शिक्षक व चपरासी दोनों ही आदिवासियों से बेगारी लेते थे और मुफ्त के माल पर पलते थे। ( ग्रिग्सन, पृ. १६, फारेन सिक्रेट इंटरनल, तदेव अगस्त १९११, कार्यवाही ३७, पैरा ३४)
१२. ब्रिटिश सरकार की प्रवासी नीति के कारण बस्तर में बाहरी लोगों का आना-जाना भी आक्रोश पैदा कर दी। जिन्हें आदिवासी मातृभाषा  में 'परदेशी ' या 'हटेया' या 'हाटिया' कहते थे/ हैं । इनमें सबसे अधिक प्रवासी मद्रास प्रेसीडेंसी के 'तेलंगा ' थे। रायपुर जिले के कबीरपंथी तथा सतनामियों का बस्तर प्रवास अधिक संख्या में हुआ। अनेक कायस्थ परिवार भी आकर बसे ( सेंसस आफ इंडिया,  खण्ड १०, पृ ४६) । इन प्रवासियों ने धीरे धीरे आदिवासियों की उपजाऊ भूमि को हड़पना प्रारम्भ किया कभी उधार के नाम पर तो कभी अन्य सहयोग के आड़ में । जिसके कारण आदिवासी उनकी जमीन से बेदखली का शिकार हुए। इन हाटिया लोगों ने बेगारी के साथ-साथ अत्याचार के गलत तरीकों का भी इस्तेमाल किया जिससे आदिवासियों के सादगी मन में गहरा धक्का लगा ।
१३. असहिष्णु पुलिस कर्मचारियों के अत्याचार से भी जनता पस्त थी। ग्रिग्सन (१९३६) ने यह स्वीकार किया था - ' एक कुप्रशिक्षित पुलिस प्रायः सामान्य ज्ञान के बिना होता है। किसी भी गाँव में घुसकर वहाँ तुच्छ मामलों पर बेवजह कई दिनों तक जांच करता रहता है। वह आशा करता है कि जांच की अवधि में केवल और केवल भात ,मास और मुर्गी से उसका सूखा सूखा स्वागत न हो,  अपितु उसके लिए महिला भी उपलब्ध करायी जाये । वह यह भी चाहता कि लौटते समय उसके लिए अनाज भी मिल जाये । गांव से उसका अनाज व सामान लदवा कर ले जाया जाता था और सामान ढोने के एवज में कोई पारिश्रमिक नहीं दिया जाता था। स्टैण्डेन ( तदेव) ने भी स्वीकार किया है कि उस दौरान पुलिस का काम मात्र दमन करना था। वे ग्रामीणों के किसी कार्य के प्रति अस्वीकृति से उन्हें बेरहमी के साथ मारपीट करते थे।
१४. आदिवासियों का बेगारी ( गुलामी)  की प्रथा से सख्त विरोध था। केवल रेवन्यू या जंगल के कर्मचारी ही बेगार नहीं लेना चाहते थे अपितु स्थानीय पाठशालाओं के शिक्षक व चपरासी भी बेगारी की मांग करते थे। यह बात अधिकारियों को अखरती भी नहीं थी बस्तर आने वाले प्रत्येक व्यक्ति की गुलामी यहां का आदिवासी करें यह उनकी कुमंशा थी। बेगारी के कारण भी आदिवासियों में जन आक्रोश उत्पन्न हो गयी।
उपरोक्त कारणों से बस्तर में जन आक्रोश भभक उठी थी । जबकि रानी सुबरन कुंवर और लाला कालेन्द्रसिंह पहले ही समझ गये थे और आदिवासियों को शस्त्र उठाने के लिए प्रोत्साहित किए क्योंकि उन्हें पता था कि राजशाही अब असंभव है । साथ ही अपील की कि ब्रिटिश राज और उसके हमदर्द राजा व कुख्यात दीवान बैजनाथ पण्डा को अपदस्थ कर पुनः मुरिया राज स्थापित किया जाये ।

ब्रिटिश सरकार व सामन्ती काल में बस्तर की आत्मछवि को गहरा धक्का लगा था और वह अपनी पहचान भी खो रहा था। बस्तर के प्रत्येक क्षेत्र में "मार्केट इकोनोमी " के विस्तार के कारण यहाँ के आदिवासियों ने पाया कि उनकी पारम्परिक आत्मछवि उनके नियंत्रण से बाहर होती जा रही है तथा "प्रवासित छवि" उन्हें 'असभ्य बर्बर तथा गंवार' ठहराने को मजबूर  कर रही थी।
ब्लण्ट से लेकर एल्विन तक सारे विदेशी बस्तर के आदिवासियों की यही छवि प्रस्तुत कर रहे थे। आदिवासियों की लड़ाई माटी की रक्षा के साथ ही साथ स्वायत्तता पर हटिया लोगों की अतिक्रमण का सशक्त प्रतिरोध था। यह लड़ाई आज के सन्दर्भ में भी कितना प्रासंगिक है यह समझ सकते हैं ।
संदर्भ साभार : डा. हीरालाल शुक्ल : बस्तर का मुक्तिसंग्राम (१७३४-१९१०)
संकलन :माखन रावेन सोरी
लंकाकोट कोयामुरी दीप

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