गोटुल गोण्डवाना

आदिम ज्ञान केन्द्र "गोटूल" व्यवस्था

गोंडवाना संदेश में एक मित्र ने "गोटूल" के संबंध में अपनी प्रतिक्रया दी है, कि उन्हें एक ब्राम्हण शिक्षक राजीव दीक्षित ने बताया है कि वह ज्ञान संस्कार केन्द्र “गुरुकुल” है ? आर्यो और अनार्यों के की बातें हमें जब तक समझ में नही आएगी तो हम इन ऐतिहासिक तथ्यों का अध्ययन नहीं कर पाएंगे. गोंडी में ‘गोंगो’ अर्थात ज्ञान “टूल” अर्थात स्थान, घर. ज्ञान केन्द्र, शिक्षा केन्द्र, वर्तमान परिवेश में कहें तो पाठशाला. आदिम जनजातियों के ज्ञान केंद्र, संस्कार केन्द्र का नाम गोटूल है.

आदिवासी लोग अब तक केवल ब्राम्हणों के बनाए हुये सिलेबस और ग्रंथों के अलावा कुछ नहीं पढ़ रहे हैं, ऐसा मुझे एहसास हो रहा है. आदिवासियों के ग्रंथों को पढोगे तो जीवन में कभी कमजोर और असांस्कारिक साबित नहीं होवोगे. ब्राम्हण (आर्य लोग) गोंडवाना में नही आये थे, उसके हजारों साल पहले से गोटूल नामक ज्ञान और संस्कार केन्द्र गोंडवाना में प्रचलित था. इसी गोटूल में जन्म संस्कार, शिक्षा संस्कार, विवाह संस्कार और मृत्यु संस्कार का प्रतिपादन किया गया. इन संस्कारों के प्रतिपादन के लिये शंभू महादेव (आर्य ग्रंथों में उल्लिखित नाम- शंकर) ने अपने प्रिय शिष्य रूपोलंग पहांदी पारिकुपार लिंगों को सौंपा, जिससे उसने इसे अंतिम रूप प्रदान किया. आर्यों ने गोंडवाना के ज्ञान और शिक्षा केन्द्रों को विकृत रूप में अपने किताबों में लिखा है. इसे उन्होंने अय्यासी का केन्द्र बताया है, क्योकि उन्हें प्राचीनकाल से ही आदिवासियों से घृणा रही है.

उन्होंने पक्षपात तरीके से वर्ण वयस्था बनाया और उसका प्रतिपादन किया. वर्ण व्यवस्था में उनहोंने खुद को सर्वोच्च साबित करने के लिये ब्रामण को मुह या सिर से पैदा होने वाला, क्षत्रीय को भुजा से पैदा होने वाला, वैश्य को पेट से पैदा होने वाला और शूद्र को पैर से पैदा होने वाला बताया. इस वर्ण व्यवस्था अनुसार वे शूद्र को सबसे नीच वर्ण (जिसमे गोंडवाना के मूलनिवासी आते हैं) प्रतिपादित किया और हर तरीके से उनके साथ अत्याचार और शोषण करने के अलावा कुछ नहीं किया. उन्होंने यह व्यवस्था अपने वर्ण को छोड़कर तीनों वर्णों को अपनी सेवा करवाने के लिये ही बनाया था. आदिम सांस्कारिक व्यवस्था इस तरह के भेदभाव प्रदान नहीं करता. आदिवासी प्रकृति व सृष्टि की सर्वोच्च और सर्वव्यापक व्यवस्था को ही मानता है. वह आर्यो के इस कुतर्क वर्ण व्यवस्था को नहीं मानता. यदि कोई संगत जीव मुह से पैदा हो, भुजा से पैदा हो, पेट और पैर से पैदा हो सकता है, तो जीवों में "लिंग" या "योनि" की आवश्यकता ही नहीं है. यदि सांसारिक जीवन में लिंग की आवस्यकता ही नहीं है, तो प्रकृति ने जीवों में लिंग क्यों बनाया ?

गोंडवाना की सांसारिक एवं सांस्कारिक व्यवस्था में इस तरह की कुतर्कीय ज्ञान का कोई महत्व नहीं है. उन्होंने अपने आपको सर्वोच्च साबित करने के लिये और दूसरों पर अत्याचार एवं शोषण करने के लिये यह व्यवस्था बनाया. आज भी उनके वंशज अनेक तरीके से आदिवासियों से घृणा करते है, पक्षपात करते है. अब तक आदिवासियों के पिछड़े होने का यही मूल कारण रहा है. आज भी वे लोग गोंडवाना की गोटूल व्यवस्था को मान रहे है, किन्तु इस गोटूल व्यवस्था बनाने वालों को कभी नहीं सराहा गया. आदिवासियों की व्यवस्थाओं का इन्होने चोरी किया और अपनाया किन्तु अपने ग्रंथों में यह नहीं बताया कि ये व्यवस्था गोंडवाना के मूलनिवासियो, आदिवासियों की देन है. वे लोग जिनसे घृणा करते हों, उनकी बड़ाई कैसे करें ? बल्कि उन्होंने हमेशा से अपने ग्रंथों में आदिवासियों को बन्दर, भालू, जानवर और राक्षसों की संज्ञा दी और उनसे जानवरों की तरह सदियों से व्यवहार किया. उनका संघार किया. उन्हें और उनकी बहुमूल्य संस्कृति को मिटाने का हमेशा प्रयास किया ताकि गोंडवाना में केवल आर्यों (ब्राम्हणों) का राज हो. प्रथमतः गोंडवाना में चोरी छिपे प्रेवश करने वाले ब्रम्हा, विष्णु, इंद्र नाम के आदि आर्यों ने महादेव (आदिवासियों के देवता जो पार्वती से शादी के बाद 'शंकर' कहलाया) उन्हें मिटाने के लिये कई छल-बल किये. रम्भा, मेनका, उर्वषा नामक, अपने बहन बेटियों, नृत्यांगनाओं और रूप सुंदरियों को महादेव को रिझाने और अपने प्रेमजाल, रूपजाल में फ़साने के लिये भेजा गया. किन्तु वे उनसे मोहित नहीं हुये. उसी तरह पार्वती को भी भेजा गया था, किन्तु पार्वती खुद ही महादेव से मोहित हो गई, जिसके कारण पार्वती का महादेव से विवाह कर दिया गया. चूंकि पार्वती आर्य नश्ल ब्राह्मण वर्ण की थी. इसलिये विजातीय विवाह होने के कारण महादेव को "शंकर" कहा गया.

शंकर महादेव से पूर्व इनकी पीढ़ी में ८७ महादेवों की जानकारी गोंडी ग्रंथों में मिलती है. जो शंकर महादेव से भी अति बलशाली, महाज्ञानी थे. इनकी तुलना में आर्य कहीं नही लगते थे. इसलिये उन्हें ईर्ष्या होती थी. इनके सामने आर्य ब्राम्हण- ब्रम्हा, विष्णु, इंद्र की कोई पूछ नहीं थी. इसलिये आर्यों के वंशजों ने अपनी पृथक अधिसत्ता स्थापित करने के लिये, अपने पक्ष को मजबूत करने के लिये कई कुतर्कीय कहानियां गढ़े उसी आधार पर उनके वंशजों ने ग्रंथ लिखे- गीता, वेद, पुराण आदि. इन ग्रंथों में आर्यों के देवताओं के ही गुणगान और केवल लोक लुभावन तथा प्रपंचों का ताना बाना है. अपने आपको इस गोंडवाना देश के मूलनिवासी साबित करने के लिये इन ग्रंथों की अति प्राचीनता बताई जाती है.

आप लोग विज्ञान के युग में जीने वाले हो. इसलिये यह बताना उचित होगा कि, भारत में सबसे पहले छापाखाना मशीन ग्रेटब्रिटेन से सन १८०० ईश्वी में अंग्रेजों द्वारा लाई गई थी लगभग १८२५ के आस-पास में. तब प्रश्न यह उठता है कि क्या ये ग्रंथ ईशा के पूर्व छपे ? कदापि नहीं. विदेशों में देवनागरी लिपि का विकास या संस्कृत की निशाँ अभी तक नहीं है, तो संस्कृत में कब छापे गए ? कहाँ छपे ? निशंदेश लगभग १८००-१९०० के बीच में ही छपे. इस बात का मनन करने के लिये लोगों के पास टाईम नहीं है, यह दुर्भाग्य है. ब्राम्हणों के ग्रंथों के पीछे लोग भागे जा रहे है. इतनी बड़ी बौद्धिक अपंगता मैंने केवल अपने आदिवासी समाज में ही देखा. गुरुकुल की व्यवस्था गोंडवाना की देन है. नाम बदल कर आर्यों ने इसे "गुरुकुल" कहा और कह रहे हैं. यह नाम आर्यों के आने के पहले "गोटूल" था. इसका मतलब यही हुआ की इन्होने हमारी व्यवस्थाओं को बदलकर अपनाया किन्तु गोंडवाना वासियों के द्वारा बनाई गई व्यवस्था को आदिवासियों के लिये हमेशा विकृत रूप में प्रदर्शित किया. इनके गुरुकुलों में शूद्रों को पढ़ने की इजाजत नही थी. इसलिये एकलव्य को उनके गुरुकुल में प्रवेश नहीं मिला और वे स्वयं ही धनुर्विद्द्या सीख लिया जिसके सामने द्रोणाचार्य के द्वारा अर्जुन को दी गई धनुर्विद्या भी तुच्छ था. फिर भी एकलव्य जैसे बिना गुरु के सीखे हुये धनुर्विद्द्या के बदले द्रोणाचार्य ने गुरु दक्षिणा में उनसे अंगूठा कटवा लिया. यह प्राचीन व्यथा आदिवासियों के साथ अत्याचार नहीं तो क्या है ? गुरु शब्द भी आदिवासियों की भाषा गुरु-गुरवारी परंपरा का शब्द है. गुरु शब्द और उसकी पवित्रता को भी द्रोणाचार्य ने कलंकित किया.

आज भी ये लोग गोंडवाना के संस्कारों को अपनाकर उसी में छेद कर रहे है. उसे विकृत या अन्धविश्वास करार दे रहे है. जबकि आदिवासियों के कोई लिखित धार्मिक संस्कार नहीं होने के बावजूद उनके मानवीव संस्कारों में परिवर्तन अब तक नही आया है. किन्तु अब का नया जनरेशन अपने संस्कारों से दूर जाकर या अपने संस्कारों की जानकारी के अभाव के कारण पूर्वजों के दिये हुये मानव संस्कारों को दूषित जरूर कर रहा है. वर्तमान आदिवासी जनरेशन को अपने संस्कारों को जानना आवश्यक हो गया है. आर्यों के गर्न्थों ने सम्पूर्ण आदिम मानव सांस्कारिकता को दूषित करके रख दिया है. वर्तमान जनरेशन द्वारा इस भयावह दैवीय, धार्मिक एवं सांस्कृतिक विकृति को समझना होगा. इससे हटकर आदिम पूर्वजों द्वारा स्थापित प्राकृतिक, मानवीय सांस्कारिक व्यवस्था को अपनाने से ही सृष्टि के सम्पूर्ण मानव हित और कल्याण होगा. अन्यथा आर्यों की सांस्कारिक व्यवथा अनुसार मानवता से पशुता की ओर जाने से कोई नहीं रोक सकता. गोटूल की सांस्कारिक व्यवस्था ही इसे रोक सकता है. मंदिरों के भगवानो की अपेक्षा प्राकृतिक देवत्व की भावना ही इसे रोक सकता है. क्योंकि मंदिरों के देवत्व के कारण प्रकृति का विनाश निश्चित है. प्रकृति का विनाश सम्पूर्ण प्राणी जगत का विनास है. सम्पूर्ण मानव कल्याण के लिए प्राकृति का देवत्व जागृत कर प्रकृति का संरक्षण करना ही मानव समाज का संरक्षण है. प्राकृतिक देवत्व को मानने का गुण आदिवासियों में प्राचीनकाल में था, वर्तमान में भी है और अंततः रहेगा. यही उसके जीवन संस्कार, गोटूल संस्कार के नियम हैं.
साभार तिरुमाल दिलीपसिंह परते दादा के फेसबुक वाल से ।

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